गरीब किसान की कहानी: पार्ट-1

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garib kisan ki kahani


भारत के एक सुदूर प्रांत में बसा एक गांव परियाना जहां के भोले भाले लोग
देश दुनिया के मुद्दों से बेखबर अपने ही जीवन में मग्न रहते थे। उसी गांव में
रहता था एक किसान जो ठाकुर साहब से मिली जमीन पर खेती करके अपना गुजर-बसर करता
था। मौसम साथ न देने के कारण इस साल खेती से उपज कम हुई थी। हालांकि इतने फसल से
मुंगेरी लाल का परिवार आराम से साल गुजार सकता था, लेकिन अपने पिता बाबू लाल और
बिक्रम ठाकुर के बीच हुए समझौते के कारण उसे अपनी उपज का आधा हिस्सा ठाकुर साहब
को देना होगा।

परियाना से 15 किलोमीटर दूर एक शहर था जहां परियाना के
लोग साल के दौरान मजदूरी का काम ढूंढने जाते थे। मुंगेरी
लाल का बेटा रंजीत अब 20 साल का हो चुका था। खेती के काम-काज मे अपने पिता का
हाथ बटाने के साथ वह जितपुर में मजदूरी करने भी जाता था।

गाँव मे एक छोटा सा सरकारी स्कूल था, जहां पाँचवी तक की पढ़ाई होती थी लेकिन
पढ़ाई लिखाई के बजाय वह जुआड़ियों का अड्डा बन चुका था। स्कूल का जिम्मा केवल एक
ही शिक्षक शंकर प्रसाद के ऊपर था जिसका ज्यादातर समय गांव वालों को समझाने मे
चला जाता की बच्चों को स्कूल भेजो।

मार्च का महिना शुरू हो चुका था। लोग खेतों मे धान की फसल को बैलगाड़ी मे लादकर
अपने-अपने खलिहानों मे जमा कर रहे थे। 

“कल जितपुर जाना होगा।” बुधन ने धान के फसलों को अपने हँसुए से काटते हुए
कहा।

“अभी कुछ दिन मत जाओ। जब खेत का काम खत्म होगा तो मैं भी साथ चलूँगा।” रंजीत
ने बुधन को फुसलाते हुए कहा। लेकिन वह जानता था की बुधन का कोई भरोसा नही है।
वह बिन पेंदी का लौटा है जहाँ ढाल मिलेगी वह उधर ही लुड़कने लगेगा।

बुधन, “तुम्हारा क्या है बाबू, तुम तो इस फसल से पूरा साल गुजारा कर लोगे पर
मुझे तो काम करना पड़ेगा ना और बाँगो दा ने कहा है के अगर मैं कल नही गया तो वह
किसी दुसरे मजदूर को रख लेगा। वैसे भी बबलू 4 दिन से उसके आगे पीछे चक्कर काट
रहा है। अगर नही गया तो काम हमेशा के लिए छूट जाएगा।”

रंजीत, “हाँ तो छूट जाने दो, इस सप्ताह मेरे साथ काम कर लो। फिर अगले सप्ताह
से दोनों जाएंगे।”

बुधन, “नही… मैं केवल आज ही हूँ, उसके बाद तुम आदमी ढूंढ लो भाई। दो-चार दिन
के काम के लिए मैं बाँगो दा को धोखा नही दे सकता।”

बुधन की बात सुनकर रंजीत बहुत चिंतित हो गया। अगर बुधन काम पर नही आया तो उसकी
खटाली बढ़ जाएगी। अभी धान की कटाई भी नही हुई थी और फिर बिचाली को भी अलग करना
है। यह सोचकर रंजीत ने अपना हाथ जल्दी जल्दी चलाना शुरू किया।

धान काटने में आज और कल का समय लगने वाला था। रंजीत ने अंदाजा ले लिया की अगर
आज ज्यादा से ज्यादा धान काट लिया तो कल वह अकेले इसे काट लेगा।

“अरे ओ रंजीत, फसल काटने के लिए और आदमी चाहिए क्या?” आवाज दाहिने ओर से आयी
थी, रंजीत ने खड़ा होकर देखा तो यह नितेश था।

“बिल्कुल चाहिए भाई, हँसुआ साथ मे लाए हो की नही?” रंजीत के लिए तो यह एक ऑफर
था, उसने खुशी से हामी भर दी।

तभी नितेश ने अपने कमर में टंगी हँसुए को निकाला और फसल को काटकर जमा करने
लगा। यह देखकर रंजीत ने राहत की सांस ली। अब बुधन चला भी जाये तो उसे कोई चिंता
नहीं है।

“ऐ नितेश, दिहाड़ी कितना लेगा?” अभी दोपहर होने ही वाली थी और बुधन सुबह से काम
पर लगा था, इसलिए वह जानने को उत्सुक था। 

“15 रुपये” नितेश ने कहा।

बुधन, “देख लो रंजीत, लाठ साहब 12 बजे काम पर लगा है और इसे दिनभर की मजदूरी
चाहिए।”

रंजीत, “वो मजाक कर रहा है।”

नितेश, “मजाक नहीं है भैया, 15 से एक रुपए कम नही लूँगा।”

बुधन,”क्या? अगर तुमको 15 मिलेगा तो मुझे 30 मिलना चाहिए?”

नितेश, “तुम्हारा दिहाड़ी तुम जानो, मुझे तो बस अपने से मतलब है।”

रंजीत दोनों की बात सुन रहा था लेकिन उसने कुछ नहीं कहा।

नितेश, “क्या बोलते हो रंजीत भाई? 15 रुपये लेंगे, काम करे या रहने
दें?”

“जो सही लगे वो करो”, रंजीत ने चतुराई से जवाब दिया।

नितेश, “अच्छा 12 रुपये दे देना।”

“अभी काम करो शाम को बताएंगे की कितना देंगे।” इतना बोलते ही उसे अपने पिता की
आवाज सुनाई दी, वह बैलगाड़ी में बैठकर बैलों को हाँकता हुआ खेत की तरफ चला आ रहा
था। सुबह से दो चक्कर हो चूके थे, यह तीसरा चक्कर था।

“अरे नितेश, तुम कब आए?”, मुंगेरी ने उत्सुकता से पूछा क्योंकि उसने उसे सुबह
को नहीं देखा था।

नितेश, “अभी आधा घंटा हुआ है।”

मुंगेरी, “पहले पता होता तो खाना ले आता, मैंने तो दो आदमी का ही खाना लिया
है।”

नितेश, “कोई बात नही काका, मैं घर जाकर खा लूँगा।”

“क्या मुंगेरी चाचा? फसल कट रही है और मुझे पता तक नहीं है।” यह आवाज उदय
ठाकुर की थी, जो लुटन और लालू के साथ मोटरसाइकिल पर घूमता हुआ वहां पहुंचा था।
वह बिक्रम ठाकुर का इकलौता बेटा था, और पूरे गांव में अपनी धाक जमाता फिरता
था।

मुंगेरी, “बेटा हर बार तो ऐसा ही होता है। ठाकुर साहब मेरे खलिहान मे अपना
ट्रैक्टर भेजते हैं और फसल का बँटवारा वहीं होता है।”

उदय ठाकुर, “तुम्हारे खलिहान से मेरे घर तक ट्रैक्टर आने जाने में डीजल का
खर्चा बहुत गिर जाता है, इस बार फसल कम हुई है तो बंटवारा खेत मे ही होगा, वो
भी बिचाली समेत।”

यह सुनकर रंजीत को गुस्सा आ गया, उसने तेज आवाज में  कहा, “बिचाली तो हम
लोग ही रखेंगे।”

“ऐ बबुआ, जरा आवाज नीचे कर के बात कर और ठाकुर साहब जो कह रहे हैं वही होगा,
ज्यादा आनाकानी की तो अगली बार इस खेत पर पैर मत रखना वरना ऐसा मरेंगे की उठ कर
खड़े नही हो पाओगे।”, लुटन ने चापलूसी करते हुए अपनी दादागिरी दिखाई।

उन लोगों की सनक देखकर मुंगेरी को डर लगने लगा। उसे लग रहा था की कोई अनहोनी
ना हो जाए लेकिन बंटवारे की शर्त उसे ज्यादती लग रही थी। उसने उदय ठाकुर
से  हाथ जोड़ते हुए कहा, “बेटा इस बार सूखे के कारण फसल बहुत कम हुई है,
अगर बिचाली भी ले लोगे तो बैलों को क्या खिलाएंगे?”

उदय ठाकुर, “देखो चचा, हमारे गोदाम मे बहुत सारा भूसा पड़ा हुआ है, और कुटी की
मील भी ठप पड़ गई है। अगर पिताजी इसी तरह फसल दान करते रहे तो हमलोग सड़क पर आ
जाएंगे। बंटवारे के अनुसार फसल का आधा हिस्सा हमे मिलना चाहिए लेकिन तुमलोगों
ने कभी हमे आधा हिस्सा नही दिया है। इस बार कोई आनाकानी नही चलेगी। अगर चारा
चाहिए तो आठ आना किलो हमारे गोदाम से खरीदना पड़ेगा।”

तभी लालो ने मोटरसाइकिल की डिक्की से नापने के लिए फीता निकाल लिया, उसने बुधन
को फीते की छोर पकड़ाई और कहा, “ऐ बुधन चल उस पीढ़ी के पास जा और फीता पकड़।” वे
लोग खेत की लंबाई और चौड़ाई मापने लगे।

यह देखकर रंजीत का मन विद्रोह से भर उठा, उसे यह अन्याय बर्दाश्त नहीं हो रहा
था। धूप, बारिश और ठंड झेलकर बीज बोए वो और फसल कोई और ले जाये?

उदय ठाकुर ने खेत को मपवाकर मुंगेरी लाल को बात दिया की यहां तक फसल उसकी
है।

रंजीत सुबह से काम कर रहा था, उसे अब भूख लग रही थी लेकिन भूख से ज्यादा उसपर
गुस्सा हावी था। उसने हँसुए को जमीन पर पटकते हुए कहा, “जहां तक तुम्हारी फसल
है, खुद ही काटकर ले जाओ।“

इतना कहना था कि बवाल शुरू। उदय ठाकुर ने बैलगाड़ी मे रखी छड़ी उठाई और रंजीत को
मारने के लिए लपका लेकिन मुंगेरी लाल ने उसके पैर पकड़ लिए।

उदय ठाकुर का चढ़ा हुआ पारा देखकर बुधन को वो कहावत याद आ गई की – गेंहू के साथ छिलका भी पिस जाता है।
यह सोचकर वह वहाँ से भाग खड़ा हुआ। मुंगेरी लाल ने किसी तरह हाथ जोड़कर और पैर
पकड़ कर मामले को शांत कर लिया लेकिन रंजीत झुकने को तैयार नही था, हाँलकी वह
चुपचाप खड़ा होकर आगे क्या करना है यह सोच रहा था।

“देख चचा, उम्र का लिहाज कर रहे हैं, अपने लड़के को समझ लो, वरना गाँव मे बसने
नही देंगे।” इतना कहकर उदय ठाकुर ने मोटरसाइकिल चालू की और वहाँ से चले
गए।

रंजीत अब खाना खाने बैठ गया, मुंगेरी ने जो खाना बुधन के लिए लाया था उसे
नितेश ने खा लिया। खाने के बाद दोनों काम पर लग गए। धान को बैलगाड़ी मे लादकर
रंजीत ने पिताजी को घर भेज दिया। शाम होते-होते रंजीत ने वहाँ तक फसल की कटाई
कर चुका था जहां तक उदय ठाकुर ने चिन्हा दिया था। उसने कटाई रोककर अपने हिस्से
की फसल लादी और बैलगाड़ी मे लादकर घर चला गया।

मुंगेरी लाल के पास कुल 3 बीघा जमीन था, जिसमे से वे लोग 30 बोरी चावल उगा
लेते थे, लेकिन इस साल सूखा पड़ने के कारण 15-20 बोरी चावल उगने का ही अनुमान
था। इस वर्ष वह अतिरिक्त चावलों को बाजार मे बेच नहीं पाएगा। ऊपर से आधी बिचाली
भी ठाकुर साहब को देना होगा।

बैलगाड़ी खाली करने मे शाम के 6 बज चुके थे। दिनभर का थका हुआ रंजीत अब हाथ
पाँव धोकर घर की ओर जाने लगा। रंजीत का घर खपरैल का बना हुआ था, एक चकोर जमीन
थी जिसमे चारों ओर से दीवार थी, सामने की दीवार मे मुख्य दरवाजा था, मुख्य
दरवाजे से अंदर जाने पर सामने तीन कमरे थे, बाईं और जानवरों का खटाल था और दाईं
ओर दो बड़े कमरे थे जहां अनाज और अन्य काम करने के औजार रखे होते थे।

घर के बीचों-बीच एक खुला आंगन था जहां हमेशा घाट और चौकी बिछी होती थी। दरवाजे
से अंदर जाते ही रंजीत ने देखा की वहाँ बुधन, पिताजी, माँ और दादी बैठकर चाय पी
रहे थे और उसकी छोटी बहन गुड़िया रात का खाना बना रही थी।

रंजीत के पहुंचते ही बुधन की नजरें नीचे झुक गई, वह अपने भाग जाने को लेकर
शर्मिंदा था लेकिन राहत इस बात से थी कि घर वाले रंजीत को दोषी मान रहे थे।
उन्हे वहाँ बखेड़ा खड़ा करने की कोई जरूरत नही थी, वह मुद्दा बातचीत से ही सुलझ
सकता था।

“गुड़िया… भैया को चाय लाकर दो।” सावित्री ने अपनी बेटी को आवाज लगाई। तभी
पीछे से नितेश भी वहां पहुंच जाता है।

नितेश के आने के बाद रंजीत ने पिता से कहा, “नितेश को दस रुपये और बुधन को
साढ़े सात रुपये देना है।”

बुधन और नितेश ने कोई विरोध नहीं किया, पैसे मिलने के बाद वे दोनों वहां से
चले गए।

“भैया चाय”, गुड़िया के हाथ से चाय लेकर रंजीत ने अपनी दादी से पुछा, “दादी,
वो जमीन हमे कब मिली थी?”

दादी, “बेटा, जब मैं ब्याह कर इस घर में आई थी तब तुम्हारे दादा बाबू लाल,
बिक्रम ठाकुर के कुटी मिल में काम करते थे। जिस जमीन पर हम लोग अभी खेती कर रहे
है वह तुम्हारे नाना की जमीन थी।”

“तुम्हारी मां की शादी के लिए उसके पास एक फूटी कौड़ी नहीं थी। उन्होंने ठाकुर
साब से कुछ पैसे उधार लिए, लेकिन उन पैसों को वह कभी वापस नहीं कर पाए। आखिरकार
वह जमीन उसे ठाकुर को ही बेच देनी पड़ी।”

“बूढ़ी हो गई है लेकिन बोलने का ढंग अभी तक नहीं आया है।”, फूटी कौड़ी वाली
बात सुनकर मां को दादी पर गुस्सा आ गया था।

“क्या गलत कहा मैंने? अगर तुम्हारे बाप ने संयम से काम लिया होता तो आज वो
जमीन हमारी होती, और ठाकुर को अन्न का एक दाना भी नहीं देना होता।” दादी ने
झल्लाते हुए कहा।

दोनों सास बहू की नोक झोंक को बीच में काटते हुए, मुंगेरी लाल ने कहा, “अगर
जमीन मेरे ससुर की थी तो कागज पर मेरा अंगूठा क्यों लगाया गया था?”

दादी, “ये बात मुझे नहीं पता, पर मैं इतना जानती हूं कि जमीन तुम्हारे ससुर की
ही थी। गांव के सभी लोग ये बात जानते थे।”

मुंगेरी, “खैर जो हो ठाकुर साहब की दया है, जिसने अपनी जमीन पर हमें खेती करने
दिया। आज तुम्हारे  व्यवहार कारण वो जमीन हमारे हाथ से जा सकती थी।”

”पर बाबा वो कागज कहां है, जिस पर आपका अंगूठा लगा था?” रंजीत को ये बात समझ
नहीं आ रही थी कि आखिर उस जमीन को खरीदते समय उस पर पिताजी ने अंगूठे क्यों
लगाए थे? 

मुंगेरी लाल उठकर कमरे के अंदर गया और एक मैला सा बैग लेकर बाहर आया जिसके
अंदर कुछ कागज पत्र रखे हुए थे। रंजीत ने पाँचवी तक पढ़ाई की थी और थोड़ी बहुत
हिन्दी पढ़ लेता था, बैग को खंगालने पर उसे जमीन से संबंधित दो कागज मिले पर वह
उनके लिखावट को पढ़ नही पाया। उसने वो कागज अपने पास रख लिए यह सोचकर कि कल
स्कूल के मास्टर शंकर प्रसाद से पढ़ा लेगा। उसके बाद वह रात का खाना खा कर सो
गया।

अगले दिन सुबह जब रंजीत उठा…


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